Tuesday, December 30, 2008
गति और ठहराव
गति और ठहराव
ठहेरे हुए पानी में
जीवन तलाशते
जब मन उ च ट नें लगे
तो ........................
रंग बिरंगी तितलियाँ भी
नहीं भरमाती मन को
लंबा ठहराव......
स्थूलता ले आता है शायद
लगातार उड़ते पंछी
जब थकते हैं ......
तो ..........
खुला नीला आसमान
भी उन्हें नहीं लुभाता
लगातार क्रियाशीलता से
मन निष्क्रिय हो जाता है शायद
गति और ठहराव .......
दो अनिवार्य पहिये हैं
सफल जीवन के .....
किसी एक भी अनुपस्थिति में
जीवन घिसैटनें लगता है !!!!!!
सुजाता दुआ
इंदर धनुष ..
हम सभी के पास होता है
...एक इंदर धनुष ...
जिसकी रंगबिरंगी तारें
जुडी रहती हैं हमारे ...
...मन-मस्तिषक से .....
जब तक इन तारों पर
सुर बजते हैं .......
संतुलन बना रहता है
दिल और दीमाग का
बिन स्पंदन .......
इन्देर्धनुशी तारें ...
भूलने लगती हैं .....
जीवन -राग ...
और तभी जनम लेता है
असह्य विराग ....
सादर ,
सुजाता दुआ
Posted by sangharshhijiwan at 8:49 PM
Sunday, December 28, 2008
थोड़ा सा जी लो ..
मुझे हमेशा लगता है ..
तुम सिर्फ़ वो नहीं हो ...
जैसे दीखते हो .......
अच्छा तुम ही बताओ
क्या दिखने भर से हम
वैसे ही हो जाते हैं ..??
जैसे लगते हैं ......
कितनी ही आकान्शाओं को
हम दबाते हैं अक्सर ...
क्योंकि उनका होना
तथाकथित रूप से
ठीक नहीं होता ...!
पर कभी सोचा है !
क्या दबा देने से
मर जाती हैं .??
..आकान्शायें ....
या की फिर सिर्फ़
धूमिल हो जाती हैं .....
हवा का एक तेज झोंका
और फिर साफ़ नजर
आनें लगती है तस्वीर
अबकी बार ......
और भी दमकते रूप में....
की फिर उसकी चमक से
चौंधिया जाती हैं आँखें ....
तो बेहतर क्या है .....
थोड़ा सा जी लो ..
अपनी लिए भी
की फिर शायद
थोडा सा दर्द कम हो जाए
जो टीसता है अक्सर ....
सुजाता दुआ
Wednesday, December 24, 2008
Wednesday, December 24, 2008
पारदर्शिता
लोग अक्सर बनाते हैं ...
शब्दों के खूबसूरत घर
फिर उसे सजाते हैं ...
उपमाओं से ......
और खुश हो जाते हैं ...
अपनी वाक्कौशल पर
पता नहीं .....
नादान होते हैं या अनजान
जो इतना भी नहीं जानते
बिना भाव के शब्द
खोखले होते हैं ....
इतने पारदर्शी की
उनमें देखा जा सकता है
आर -पार की फिर
उन्हें (लोगों को ).....
आजमाने की
जरूरत भी नहीं रहती
सादर ,
सुजाता दुआ
Sunday, December 21, 2008
खुशियों के मायनें.....
याद है जब बचपन में कागज़ की नाव बना कर तैराया करते थे ...फिर जब कागज़ गीला हो जाता नाव ख़राब हो जाती तो झट दूसरा पना फाड़ कर नाव बना लेते हमेशा यही उम्मीद रहती की इस बार मेरी नांव जयादा चलेगी .......
यही उम्मीद फिर बड़े होने पर हमारे जीवन की डोर बन जाती है ...जिसे थाम कर हमें सपने सजानें होते हैं .....बचपन में तीतली के पीछे भागते थे ...अब बदलती मंजिलों की तरफ़ .भागते जा रहे हैं .....पहले गुड्डा गुडिया का घर सजाते थे ...अब अपना सजा रहे हैं ......
तो फिर आख़िर क्या है जो बदल गया है ....जब पहले छोटी छोटी चीजें खुशियाँ दे जाती
थीं तो अब क्यों खुशियों के मायनें बदल गए हैं .......
लम्हे भर का सुख .......
हर एक के जिन्दगी मैं एक ऐसा वक्त आता है जो कभी बीतता ही नहीं ...क्योंकी उसका बीत जाना हमें गंवारा नहीं होता ...बस हम उसे साथ लिए चलते रहते हैं ...ता उमर ...
खूबसूरत लम्हे का पल भर का सुख पूरी जिन्दगी के सुखों से कहीं जयादा होता है
थोड़े थोड़े लम्हे जोड़ कर फिर एक माला बनती है ... जिसे हम उमर भर जपते हैं ...बड़े प्यार से ..तो फिर क्यों हम हर पल की कीमत नहीं जान पाते ...जो आज बीत गया वेह कल नहीं आएगा ..तो क्यों न आज एक लम्हे की खुशी चुरा ली जाए ..कल की उदासी के पलों को हल्का करनें के लिए
ख्वाहिशों को समेटे
चले जा रहे हैं
बड़े रस्सा कश हैं
जिए जा रहे हैं
कोई जो पूछे .....
रुख क्या है हवा का ....
कितना हंसी दर्द है
पिए जा रहे ह.....
न छूटे े है सपनें
न छूटी कभी आशा ........,.
इन्तजार किसका किये जा रहे है
चाहूं तो भर लू जहान बाहों में
पर ....................
न जाने केसा है कर्ज
दिए जा रहे हैं
कोई तो बताये .....
क्या मंजिल है आख़िर
यूँ किस इंतजार में
घुले जा रहे हैं .......
सुजाता दुआ
Thursday, December 11, 2008
अर्थ
जीवन के बदलते रंग
अपनी भिन्न किस्मों में
कितने आकर्षक ,
कितने तकलीफदेह
तय करना मुश्किल है
हर रंग पर स्नेह का सुनहला आवरण....
रंग क्या है ...?
यह तो मैं जान ही नहीं पाती
सिर्फ एहसास है कि
हाँ कोई रंग है ......
चमचमाती रोशनी में रहते रहते भी
आँखें कभी अभ्यस्त नहीं होतीं चुंधियानें की
सर्दियों की धूप कितनी ही
आनन्द दायक क्यों न हो
देर तक धूप सेंकनें के बाद
अंततः चुभनें ही लगती है
अति हर बात की
अंत में बुरी ही क्यों होती है .....?
क्या ...क्यों... और कैसे के
विध्वंसक प्रशन चिन्ह
जब तुम्हे देखते ही
विलुप्त हो जाते है
तब
अपने अबोध बोध में ही
मैं अचानक पा जाती हूँ
जीवन के नए अर्थ
सुजाता दुआ
Tuesday, December 9, 2008
क्यों मलाल है ....आज
आहटों पर जितना चोंकती थी मैं
सन्नाटों ने उतना आदि कर दिया
कितना भी चाहूँ दूर न हूँ तुमसे
मजबूरियों ने उतना बाधित कर दिया
रह रह कर आ रही है दिल से ये सदा
फासलों ने क्यों हमें बेबस कर दिया
चाहती तो क्यों कर झेलती सन्नाटे
सन्नाटों ने शायद बहरा कर दिया
पुकारा तो था तुमने हर बार ....
अनसुना हर बार हमने कर दिया
आती होगी आज भी तुम्हारी आवाज
हमनें ही दरवाजों को बंद कर दिया
फिर क्यों मलाल है दिल को यह आज
न चाहते हुए भी यह क्या कर दिया
अपनी ही हाथों से किये थे दरवाजे बंद
फिर आज क्यों सोचा यह क्या कर दिया
सुजाता दुआ
Saturday, December 6, 2008
वो सड़क
जहां पर अब हमेशा
अँधेरा रहता है ....
अक्सर दिखती है मुझे
बाट जोहती हुई
मुसाफिर की ....
भूल भी जाऊं अगर
सुनहरा सपनीला सफ़र
तो क्या ?
धुंधली हो जायेगी
वो चमक
आत्मा से .....??
जो दमका करती है
निरंतर ........
अक्सर सोचती हूँ ..
अच्छा नहीं है
बीते पलों से
इतना प्यार कि
परछाइयां
जीवन भर इस तरह
पीछा करती रहें
कि फिर
उनके न होनें का
एहसास ही
कचोटनें लगें
क्या करुँ?
बाँट जोहते देखूं ??
अंधेरी सड़क को
या फिर उसे
आलोकित हो जाने दूं
अनेक वर्षों की
तपस्या के पावन
दियों से !!!!!
सुजाता दुआ
Thursday, December 4, 2008
Wednesday, November 26, 2008
मैं तुम्हें क्या कहूँ
मैं तुम्हें क्या कहूँ
अगर कहूँ तुम्हें
कोमल कलिका,
तो मन घबरा जाता है
फूल का तो कुछ ही दिन में
अंत समय आ जाता है
अगर कहूँ तुम्हें
श्वेत सरिता
तो बेचैन मन हो जाता है
सरिता का जीवन तो
अनथक चलता जाता है
अगर कहूँ तुम्हें
नभ की तारिका
तो भयभीत मन हो जाता है
तारिका को तो इन्सान
रात में ही देख पाता है
अगर कहूँ
तुम हो साँसें मेरी
तो मन थोडा बहल जाता है
क्यूंकि यह तो तय है
श् वास तो प्राणों के साथ ही जाता है
सुजाता दुआ
अगर कहूँ तुम्हें
कोमल कलिका,
तो मन घबरा जाता है
फूल का तो कुछ ही दिन में
अंत समय आ जाता है
अगर कहूँ तुम्हें
श्वेत सरिता
तो बेचैन मन हो जाता है
सरिता का जीवन तो
अनथक चलता जाता है
अगर कहूँ तुम्हें
नभ की तारिका
तो भयभीत मन हो जाता है
तारिका को तो इन्सान
रात में ही देख पाता है
अगर कहूँ
तुम हो साँसें मेरी
तो मन थोडा बहल जाता है
क्यूंकि यह तो तय है
श् वास तो प्राणों के साथ ही जाता है
सुजाता दुआ
Tuesday, November 25, 2008
अज्ञेय जी की कविताएँ
साँप
साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछूँ -( उत्तर दोगे ?)
तब कैसे सीखा डँसना-
विष कहाँ पाया ?
अज्ञेय
************ ********* ******
जो पुल बनाएँगें
जो पुल बनाएँगें
वे अनिवार्यत :
पीछे रह जाएँगे
सेनाएँ हो जाएँगी पार
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगें राम ,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएँगे
अज्ञेय
******************************
साँप !
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना
भी तुम्हें नहीं आया
एक बात पूछूँ -( उत्तर दोगे ?)
तब कैसे सीखा डँसना-
विष कहाँ पाया ?
अज्ञेय
************ ********* ******
जो पुल बनाएँगें
जो पुल बनाएँगें
वे अनिवार्यत :
पीछे रह जाएँगे
सेनाएँ हो जाएँगी पार
मारे जाएँगे रावण
जयी होंगें राम ,
जो निर्माता रहे
इतिहास में
बंदर कहलाएँगे
अज्ञेय
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Saturday, November 22, 2008
आस्था में बल है
आस्था में बल है
उसनें किया था जब प्रहार धोखे से पीठ पर
रक्त रंजित हो बिखर गया था मन वहीँ पर
अंतस में जगी गहन कसक तिलमिला कर
करुण आह निर्वासित हुई थी विपन्न मन से
आनें लगी फिर स्व आस्था पर शर्म
किया कल्पित जिसनें पाषाण में सुधा का भ्रम
झन्ना कर कुछ टुकड़े टूट कर गिरे जहाँ पर
क्षोभ के मलिन गर्भ ने जन्मीं वितृष्णा वहाँ पर
हुआ था आक्रोश इतना रूह कांपनें लगी
दवेष की ज्वाला सर्प सी नाचनें लगी
क्षण उसी प्रतिबिम्ब देख दर्पण में काँप गयी
आशा दीप्त मुख पर हताशा किस वश जनीं
फिर चेताया आत्मा ने धीरे से सहला कर
मरहम अचेतन ने लगाया थोडा बहला कर
आस्था -स्त्रोत जो हुआ था शुष्क और रसहीन
एक नव - अंकुर फूटा था वहीं पर महीन
तिमिर हुआ नहीं कभी अमर प्रकृति का नियम है
हर निशा के अंत में प्रभात का जनम है
सुजाता दुआ
उसनें किया था जब प्रहार धोखे से पीठ पर
रक्त रंजित हो बिखर गया था मन वहीँ पर
अंतस में जगी गहन कसक तिलमिला कर
करुण आह निर्वासित हुई थी विपन्न मन से
आनें लगी फिर स्व आस्था पर शर्म
किया कल्पित जिसनें पाषाण में सुधा का भ्रम
झन्ना कर कुछ टुकड़े टूट कर गिरे जहाँ पर
क्षोभ के मलिन गर्भ ने जन्मीं वितृष्णा वहाँ पर
हुआ था आक्रोश इतना रूह कांपनें लगी
दवेष की ज्वाला सर्प सी नाचनें लगी
क्षण उसी प्रतिबिम्ब देख दर्पण में काँप गयी
आशा दीप्त मुख पर हताशा किस वश जनीं
फिर चेताया आत्मा ने धीरे से सहला कर
मरहम अचेतन ने लगाया थोडा बहला कर
आस्था -स्त्रोत जो हुआ था शुष्क और रसहीन
एक नव - अंकुर फूटा था वहीं पर महीन
तिमिर हुआ नहीं कभी अमर प्रकृति का नियम है
हर निशा के अंत में प्रभात का जनम है
सुजाता दुआ
Thursday, November 20, 2008
सफ़र
Wednesday, November 19, 2008
अंजामे बेवफाई
दास्ताने दिल वो सुनाता है आज
रो कर जखम सहलाता है आज
एक वकत था की दिल तोड़ने में
पल भर भी नहीं लगाता था जो
इल्जामे बेवफाई लगाता है आज
जैसे भूखा... रोटी छीन लेता है
वेह हमदम की हंसी छीन लेता था
कहता था खुद को खुदाए मुहब्बत
जमीन ऐ मुहब्बत ही चीर देता था
कौन जाने क्या चाहता था वो
जखम बना कर सहलाता था वो
खूने दिल से सींच कर जमीन
बेरुखी से कांटे उगाता था वो
सुजाता दुआ
रो कर जखम सहलाता है आज
एक वकत था की दिल तोड़ने में
पल भर भी नहीं लगाता था जो
इल्जामे बेवफाई लगाता है आज
जैसे भूखा... रोटी छीन लेता है
वेह हमदम की हंसी छीन लेता था
कहता था खुद को खुदाए मुहब्बत
जमीन ऐ मुहब्बत ही चीर देता था
कौन जाने क्या चाहता था वो
जखम बना कर सहलाता था वो
खूने दिल से सींच कर जमीन
बेरुखी से कांटे उगाता था वो
सुजाता दुआ
Tuesday, November 18, 2008
हमदम
हर लम्हा दे जाता है खुशबू उसकी
हर आंसू गम दे जाता है
मेरा हमदम ऐसा है यारों
हंसते हंसते आंसू दे जाता है
सुजाता दुआ
हर आंसू गम दे जाता है
मेरा हमदम ऐसा है यारों
हंसते हंसते आंसू दे जाता है
सुजाता दुआ
उदासी
कब छोडोगे उदासी का आँचल
की हम तो अब हार गए
चले थे कुछ दिए जलाने
की खुद ही शमा हार गए
सुजाता दुआ
**************************
की हम तो अब हार गए
चले थे कुछ दिए जलाने
की खुद ही शमा हार गए
सुजाता दुआ
**************************
खामोशी
खामोशी कुछ नहीं कहती बस तोड़ देती है
लहरों को उठने से पहले ही मोड़ देती है
कोई क्या जाने लहरों का गम ........
जब दरिया ही साथ छोड़ देती है ....!!
सुजाता दुआ
******************************
लहरों को उठने से पहले ही मोड़ देती है
कोई क्या जाने लहरों का गम ........
जब दरिया ही साथ छोड़ देती है ....!!
सुजाता दुआ
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Monday, November 10, 2008
क्यों है अब भी आस .........
तुमने चाहा था
खोल दूँ दिल की गांठ
होंठ तो खुले पर
शब्द निकले ही नहीं
आँखों ने तो कही थी
मन की वेह बात पर
तुम समझे ही नहीं
मैंने चाहा तो था तुम
पढो दिल की किताब
उन पृष्ठों पर थे जो शब्द
तुम्हे दिखे ही नहीं
कहा था तुमने
यह है जनम भर का साथ
पर कहां था तुम्हारा हाथ
मुझे दिखा ही नहीं
मेरा हर सवाल
लोट आता खाली हाथ
फिर भी हो भ्रमित
चल रहीं हूँ साथ
क्यों है अब भी आस
मैं समझी ही नहीं
सुजाता दुआ
Saturday, November 8, 2008
उसने मांगी रुखसत .....
उसने मांगी रुखसत तो आँखे भीग आई मेरी
बेनाम रिश्ते मैं जज्बात क्यों इस कदर हावी हैं
आह भरता था वो जब भी दर्द उठता था मेरे सीने मैं
था जो जान से प्यारा क्यों दुश्मन आज वो हो गया
वक्त किसी के लिये न रुका है न रुकेगा 'सुजाता'
फिर कौन देखे उसे जो राह मैं घायल हो गया
सुजाता
बेनाम रिश्ते मैं जज्बात क्यों इस कदर हावी हैं
आह भरता था वो जब भी दर्द उठता था मेरे सीने मैं
था जो जान से प्यारा क्यों दुश्मन आज वो हो गया
वक्त किसी के लिये न रुका है न रुकेगा 'सुजाता'
फिर कौन देखे उसे जो राह मैं घायल हो गया
सुजाता
जिन्दगी ख्वाब होती .......
जिन्दगी ख्वाब होती तो अच्छा होता
आँख खुलने पर हर गम धुंआ होता
ख्वाहिशों को जी लेते जी भर नींद में
अरमानो का खून न देखना होता
भटक जाते गर राहे सफ़र मैं तो .......
झट खोल देते आँखे खोने का डर न होता
सुजाता दुआ
आँख खुलने पर हर गम धुंआ होता
ख्वाहिशों को जी लेते जी भर नींद में
अरमानो का खून न देखना होता
भटक जाते गर राहे सफ़र मैं तो .......
झट खोल देते आँखे खोने का डर न होता
सुजाता दुआ
वल्लाह ! आज वहां क्यों खामोशी है
वल्लाह ! आज वहां क्यों खामोशी है
शायद कोई आंसू बहा रहा होगा
जनाजा मेरे चैन का निकला है
और गम वो वहां मना रहा होगा
कितना मासूम है हमदम मेरा
बेवजह मातम मना रहा होगा।
सुजाता
शायद कोई आंसू बहा रहा होगा
जनाजा मेरे चैन का निकला है
और गम वो वहां मना रहा होगा
कितना मासूम है हमदम मेरा
बेवजह मातम मना रहा होगा।
सुजाता
तजुर्बा
जिन्दगी का तजुर्बा है कोई कहावत नहीं
वैसे तो किसी से कोई शिकायत नहीं
पर दर्द बहुत देता है कोई जखम .........
जब वक्त बेदर्दी से मिटटी हटा देता है
सुजाता दुआ
वैसे तो किसी से कोई शिकायत नहीं
पर दर्द बहुत देता है कोई जखम .........
जब वक्त बेदर्दी से मिटटी हटा देता है
सुजाता दुआ
संग दिल हो हमसफ़र तो क्या करे गोया कोई
अंधेरों में बेआवाज .......आँचल भिगोये कोई
हंगामे फुरकत में... हमसफ़र हैं यादों के दिए
जिनमें शबे दार बन... आह भर रोया कोई
अपनों ने ही किये हैं जुल्मों सितम बारहा
गैरों की बेवफाई पर क्यों कर रोया कोई
सादिक के इंतजार में जिस्त लगी हैं मिटने
किस तरह बुझने से ...अब ...इसे बचाए कोई
सुजाता
अंधेरों में बेआवाज .......आँचल भिगोये कोई
हंगामे फुरकत में... हमसफ़र हैं यादों के दिए
जिनमें शबे दार बन... आह भर रोया कोई
अपनों ने ही किये हैं जुल्मों सितम बारहा
गैरों की बेवफाई पर क्यों कर रोया कोई
सादिक के इंतजार में जिस्त लगी हैं मिटने
किस तरह बुझने से ...अब ...इसे बचाए कोई
सुजाता
वो पहला अहसास ....
उस दिन जब पहली
बार तुम्हे देखा था
पता नहीं वह क्या था ??
जो मैंने महसूस किया था
अचानक धडकने बढ़ गयी थी
एकपल को तो लगा
भी उखड गयी थी
भूल गया मैं की
वहां क्यों आया था
तुम्हारे रूप ने ऐसा
मुझे भरमाया था
पर तुमने एक बार भी
पलके नहीं उठाई
मुझ अकिंचन नै
नै किस्मत
कहाँ थी ऐसी पाई
मैं बुत समान खडा था
दीवाना था की
शायद मनचला हो चला था ..
कुछ क्षण मैं
न जाने क्या क्या
बीत गया
मेरा मन तब
तुम्हारे जाने
के साथ ही रीत गया ...!!!!!
सुजाता दुआ
उस दिन जब पहली
बार तुम्हे देखा था
पता नहीं वह क्या था ??
जो मैंने महसूस किया था
अचानक धडकने बढ़ गयी थी
एकपल को तो लगा
भी उखड गयी थी
भूल गया मैं की
वहां क्यों आया था
तुम्हारे रूप ने ऐसा
मुझे भरमाया था
पर तुमने एक बार भी
पलके नहीं उठाई
मुझ अकिंचन नै
नै किस्मत
कहाँ थी ऐसी पाई
मैं बुत समान खडा था
दीवाना था की
शायद मनचला हो चला था ..
कुछ क्षण मैं
न जाने क्या क्या
बीत गया
मेरा मन तब
तुम्हारे जाने
के साथ ही रीत गया ...!!!!!
सुजाता दुआ
एक मासूम सा ख्वाब
कल फिर उससे मुलाकात हुई
न जाने क्यों वो उदास थी,
कुछ न कुछ तो ज़रूर बात थी।
पर वो न मेरी दोस्त थी
न ही मैं उसे जानता था
पर फिर भी लगता था
बरसों से पहचानता था।
उसके गीले गाल
कुछ कह रहे थे,
जी चाह रहा था कि
उसके सारे आंसू पी लूं,
कितने ही जख्म हों, सब मैं ले लूं।
पर मर्यादा में बंधा
वहीं रह गया,
चुपचाप
यूं ही खड़ा रह गया......
कुछ देर बाद
वह उठ कर चल दी....
सोचा आज यूं ही नहीं जाने दूंगा
कुछ भी हो जाए
फिर इसे नहीं खोने दूंगा।
मैने पुकारा ...रूको... तो ज़रा...
ठहरो ज़रा, मत जाओ.....
पर वह....... न मुड़ी....!!! न रुकी.....!!!
गर होती तो..... रुकती शायद?
यह तो मेरा मन था
जो सपने बुन रहा था,
खयालों मैं उसका
साया चुन रहा
घबरा कर उठा तो
चारों तरफ अंधेरा था,
बेवफा अंधेरे में ,
मेरा साया ही कहां मेरा था....
सुजाता दुआ, दिल्ली
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