Saturday, July 18, 2009

क्यूँ शिला वो हो गयी

क्या दिखा था तुम्हें
पत्थरों से उलझ कर
हुआ हृदय छलनी सरिता का
जल पूरित आँचल में ही
घुल गया कहीं अश्रुजल उसका

टूट कर बिखरी धारा
असंख्य जल कणों में खो गयी
और तुमनें था कहा
प्रकृति विभूषित हो गयी

क्या कभी हृदय में
रंच मात्र न संदेह जगा
क्यूँ शुष्क नदी मार्ग
शैल कण से है सजा
कहीं ताप सहते हुए
शीतला शिला तो न हो गयी
स्याह वक्त से हार
हो थक कर सो रही

सुजाता दुआ