Saturday, November 22, 2008

आस्था में बल है

आस्था में बल है

उसनें किया था जब प्रहार धोखे से पीठ पर
रक्त रंजित हो बिखर गया था मन वहीँ पर

अंतस में जगी गहन कसक तिलमिला कर
करुण आह निर्वासित हुई थी विपन्न मन से

आनें लगी फिर स्व आस्था पर शर्म
किया कल्पित जिसनें पाषाण में सुधा का भ्रम

झन्ना कर कुछ टुकड़े टूट कर गिरे जहाँ पर
क्षोभ के मलिन गर्भ ने जन्मीं वितृष्णा वहाँ पर

हुआ था आक्रोश इतना रूह कांपनें लगी
दवेष की ज्वाला सर्प सी नाचनें लगी

क्षण उसी प्रतिबिम्ब देख दर्पण में काँप गयी
आशा दीप्त मुख पर हताशा किस वश जनीं

फिर चेताया आत्मा ने धीरे से सहला कर
मरहम अचेतन ने लगाया थोडा बहला कर

आस्था -स्त्रोत जो हुआ था शुष्क और रसहीन
एक नव - अंकुर फूटा था वहीं पर महीन

तिमिर हुआ नहीं कभी अमर प्रकृति का नियम है
हर निशा के अंत में प्रभात का जनम है

सुजाता दुआ