कितनी ही बार ऐसा होता है की ना चाहते हुए भी
हम वह सब करते हैं जो समय हम से करवाता है
तब क्या हम बुजदिल होते हैं झूठ को झूठ नहीं कह
पाते और हर ग़लत को मुस्करा कर सही कहते हैं
या कि फिर
इस सच के पीछे एक दर्दीला सच यह भी है कि
मुस्करा कर जहर पीना हमारी आदत हो चुकी होती है .....
कुछ इसी दर्द से आहत हो कर कहा था ......
नज्म
अब तो हर बात पुरानी लगती है
सफा एजिन्दगी से बद गुमानी लगती है
हर चेहरे के पीछे एक नया चेहरा
यह महफिल अब अनजानी लगती है
छोडनें से छूट जाती तो क्या बुरा था
ज़माने से यह प्रीत पुरानी लगती है
बेजारी से कहते हैं अब न निभाएंगे
महक ए जिन्दगी न अब रूमानी लगती है
पल पल गिनते हैं ,मुस्करा कर मिलते हैं
जहर हँस के पीने की आदत पुरानी लगती है
सुजाता