Sunday, April 19, 2009

कैसा विस्तार है यह ..?

कैसा विस्तार है यह ..?


अब भी
मिटटी कि सौंधी महक
लुभाती है मुझे
और कराती है मुझे
मेरे होनें का एहसास
हाँ ....!!!!!!!
मैं हूँ अब भी ' वही' !!!!
फैले कार्य विस्तार को समेट
मैं कह उठती हूँ ......

फिर दूसरे ही पल
सोचती हूँ ....?
क्यों हुई इतनी विस्तारित
कि लुप्त हो गयी ......
और अकेली रहने को
अभिशिप्त हो गयी ...
कैसा विस्तार है यह ..?
जहाँ स्व- अस्तित्तव लुप्त है ?

सुजाता दुआ

प्रेम - परिभाषा ..

प्रेम - परिभाषा ..

कुछ कहूं इससे पहले ही
तुम जान जाते हो
कैसे शब्दों को बिन कहे
पहचान जाते हो

कहाँ सीखी तुमनें
मौन की भाषा
क्या यही है
प्रेम - परिभाषा ..?

'समर्पित रहें सारे एहसास
न हो कहीं विरोधाभास
संशय न रहे आस पास
इतना हो अटूट विश्वास '

'मैं' कहीं न नज़र आए
'हम' में ही दुनिया समाये
चलो आज फिर दुहरायें
मिल कर यह कसम खाएं

सुजाता दुआ