प्रेम - परिभाषा ..
कुछ कहूं इससे पहले ही
तुम जान जाते हो
कैसे शब्दों को बिन कहे
पहचान जाते हो
कहाँ सीखी तुमनें
मौन की भाषा
क्या यही है
प्रेम - परिभाषा ..?
'समर्पित रहें सारे एहसास
न हो कहीं विरोधाभास
संशय न रहे आस पास
इतना हो अटूट विश्वास '
'मैं' कहीं न नज़र आए
'हम' में ही दुनिया समाये
चलो आज फिर दुहरायें
मिल कर यह कसम खाएं
सुजाता दुआ
3 comments:
सुजाता जी,
अत्यन्त सहजता से गहरी बात कह दी है। बड़ी सुन्दरता से प्रेम को परिभाषित कर दिया है।
रचना मनोरम है।
शकुन्तला बहादुर
आदरणीया सुजाता जी
सादर प्रणाम,
बहुत सुंदर कविता!!!!!
कुछ कहूं इससे पहले ही
तुम जान जाते हो
कैसे शब्दों को बिन कहे
पहचान जाते हो
यह "तुम" बहुत ही नसीब वालों को मिलता है जिससे "मैं" मिलकर "हम" बन जाता है.
सादर
प्रताप
आपकी रचनाओं मे अब तक सबसे,सहज-सरल व हॄदय से सीधे निकली रचना लगी मुझे
श्याम सखा ‘श्याम’
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