Monday, December 22, 2008


हर रोज कुछ अरमानो के टूटे
टुकड़े बीनती हूँ ....
फिर भी न जानें क्यों
सपने मैं बुनती हूँ

2 comments:

अनूप भार्गव said...

बहुत सुन्दर लिखा है ....

सपनों को बुनना और उन में विश्वास होना अपने आप में विश्वास होना है और ये अनिवार्य शर्त है ज़िन्दा रहने की । आदमी उसी दिन मर जाता है जिस दिन वह स्वप्न देखना बन्द कर देता है ।

Sujata Dua said...

आपनें ठीक कहा अनूप जी ...
विश्वास के भरोसे ही सपने बुनें जाते हैं पर यह भी सच है की बार बार टूटने
से विश्वास की नींव भी चरमरा जाती है ....जो बहुत तकलीफदेह होता है ......
आपके आशीर्वाद के लिए ......आभार शब्द कह कर उसकी एहमियत को कम नहीं करूंगी