Saturday, May 16, 2009

खोखला अस्तित्व


वो कल आयी थी
वही सवाल था उसकी
आँखों में
मेरे पास जिसका जवाब नहीं था
मैं उस से नजरें चुरानें लगा
पुरुष हो कर भी कमजोर हूँ
बुजदिली से उसे बतानें लगा
वह सुनती रही ,
मैं कहता रहा ...
वह लौट गयी......
मुझे भी गुमां होने लगा
अपनीं चतुराई का
और फिर सोचनें लगा
कल क्या कहूंगा
जवाब पहले से तय हो
तो जुबां लडखडाती नहीं हैं

आज... दिन ढले तक भी
वह नहीं आयी ...
कई बार मैं दरवाजे तक
जा कर हो आया
मन में बैचेनी
उफननें लगी
बाहों में पुरुषत्व
मचलनें लगा...
अँधेरे के फैलते साए में
मुझे साफ़ नजर
आनें लगा .....
अपना खोखला अस्तित्व
सुजाता दुआ

2 comments:

silence said...

kafi accha likha hai..kafi mushkil hota hai ye jab kisi ko koi jawab dena hota hai...aur bhi negative...

gazalkbahane said...

बिना लाग-लपेट माने बिना बौद्धिक कसरत के सरलता से,मनोभाव का सटीक चित्रण हुआ है कविता में
श्याम सखा