कैसा विस्तार है यह ..?
अब भी
मिटटी कि सौंधी महक
लुभाती है मुझे
और कराती है मुझे
मेरे होनें का एहसास
हाँ ....!!!!!!!
मैं हूँ अब भी ' वही' !!!!
फैले कार्य विस्तार को समेट
मैं कह उठती हूँ ......
फिर दूसरे ही पल
सोचती हूँ ....?
क्यों हुई इतनी विस्तारित
कि लुप्त हो गयी ......
और अकेली रहने को
अभिशिप्त हो गयी ...
कैसा विस्तार है यह ..?
जहाँ स्व- अस्तित्तव लुप्त है ?
सुजाता दुआ
2 comments:
सुजाता जी,
अति सुन्दर! बधाई!
जितनी बार पढता हूं उतनी ही अधिक सुन्दर लगती है। एक अद्भुत कल्पना आयी कि कहीं यह महान विस्फोट (बिग बैंग) पर तो नहीं लिखी गयी।
सस्नेह
सीताराम चंदावरकर
सुजाता :
निदा फ़ाज़ली साहब का एक दोहा मुझे बहुत पसन्द है :
छोटा कर के देखिये जीवन का विस्तार
आंखो भर आकाश है, बांहो भर संसार
स्नेह
अनूप
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