क्या दिखा था तुम्हें
पत्थरों से उलझ कर
हुआ हृदय छलनी सरिता का
जल पूरित आँचल में ही
घुल गया कहीं अश्रुजल उसका
टूट कर बिखरी धारा
असंख्य जल कणों में खो गयी
और तुमनें था कहा
प्रकृति विभूषित हो गयी
क्या कभी हृदय में
रंच मात्र न संदेह जगा
क्यूँ शुष्क नदी मार्ग
शैल कण से है सजा
कहीं ताप सहते हुए
शीतला शिला तो न हो गयी
स्याह वक्त से हार
हो थक कर सो रही
सुजाता दुआ
3 comments:
सुन्दर रचना
यूँ ही ब्लोगजगत मे भटकते हुए आपकी इस रचना से मुलाकात हुई.
बेहतरीन
"क्या दिखा था तुम्हें
पत्थरों से उलझ कर
हुआ हृदय छलनी सरिता का
जल पूरित आँचल में ही
घुल गया कहीं अश्रुजल उसका
टूट कर बिखरी धारा
असंख्य जल कणों में खो गयी
और तुमनें था कहा
प्रकृति विभूषित हो गयी .."
क्यूँ शिला वो हो गयी - एक सुन्दर मार्मिक चित्रण.
Aapase anurodh hai ki silsile ko jari rakhen,
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